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धर्मशाला, 9-11 अक्टूबर। जम्मू-कश्मीर में व्याप्त समस्या देश के भूभाग का नहीं, बल्कि अस्मिता का प्रश्न है। हमें इस समस्या से निपटने के लिए कुछ तत्वों की ओर से प्रायोजित मुद्दों से बाहर निकलकर बात करने की आवश्यकता है। वरिष्ठ पत्रकार और जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र के अध्यक्ष जवाहर लाल कौल ने कही। श्री कौल हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय में आयोजित ‘जम्मू कश्मीर नव विमर्श’ विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि देश के इस मुकुट राज्य में जो समस्याएं विद्यमान हैं, वह श्रीनगर की नहीं, बल्कि दिल्ली की देन हैं।
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के सहयोग से आयोजित संगोष्ठी के उदघाटन सत्र को संबोधित करते हुए श्री कौल ने कहा कि आज स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि हमें अपने इस राज्य के कई हिस्सों की खबर भी पश्चिमी मीडिया के जरिए मिलती है। पाक के कब्जे वाले गिलगित-बल्तिस्तान के रणनीतिक और सामरिक महत्व को उजागर करते हुए उन्होंने कहा कि यह हमारी चूक है कि हम वहां के लोगों की बात को नहीं सुन पा रहे हैं। जवाहर लाल कौल ने कहा कि यह राज्य कभी प्राचीन सिल्क रूट का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन आज इसका अधिकांश भाग पाकिस्तान और चीन के कब्जे में है। जवाहर लाल कौल ने कश्मीर को भारत की सांस्कृतिक एकता विभिन्न अंग बताते हुए कहा कि इसे कभी शारदापीठ के नाम से ही जाना जाता था।
जम्मू-कश्मीर के मसले को सकारात्मक तरीके से देखे जाने की बात करते हुए उन्होंने कहा कि कुछ लोग इसे अनुच्छेद 370 तक ही समेट देना चाहते हैं। लेकिन यह अनुच्छेद अस्थायी प्रबंध है और इसे अल्पकाल के लिए ही लागू किया गया था। उन्होंने कहा कि इसे धारा 35 ए की आड़ लेकर और अधिक मजबूती दी गई और एक हद तक अनुच्छेद 370 की मूल भावना के साथ भी खिलवाड़ किया गया। यहां तक कि 35 ए को संविधान में जोड़ने के लिए संसद की मंजूरी तक नहीं ली गई। ऐसे में इसकी वैधानिकता पर सवाल खड़े होते हैं। वरिष्ठ पत्रकार ने कश्मीर की समस्या के लिए जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि उन्होंने व्यक्तिगत अहं के कारण ही इस समस्या को और बढ़ा दिया।
श्री कौल ने कहा कि किसी भी सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह देश की सुरक्षा के लिए सीमाओं का पूरा ख्याल रखे, लेकिन आजादी के बाद जिन्हें सत्ता मिली, उन्होंने इस बात का ख्याल नहीं रखा। हालांकि अंग्रेज इस बारे में जागरूक थे और उन्होंने रूस, अफगान और चीन आदि के खतरे से निपटने के लिए गिलगित- बल्तिस्तान में अपनी सेना तैनात की थी। इसके लिए उन्होंने महाराजा हरीसिंह से समझौता भी किया था। उन्होंने कहा कि कुछ लोग कश्मीर में व्याप्त मामूली समस्याओं को तूल देकर और अलगाववाद को बढ़ावा देकर इसे लड़ाई का मैदान बना देना चाहते हैं। हमें इससे बचने की आवश्यकता है।
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के सचिव आशुतोष भटनागर ने कहा कि हम कश्मीर के मसले पर छह दशकों से जिस रास्ते पर चले हैं, उसमें कोई सफलता नहीं मिली है। इसलिए हमें नए आयामों के तहत इस मामले में विमर्श करने की जरूरत है। उदघाटन कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के कुलपति डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री, प्रो. कुलपति योगिंद्र वर्मा भी मौजूद थे। संगोष्ठी का पहला सत्र गुज्जर हिस्ट्री पर केन्द्रित रहा। इस सत्र की प्रस्तावना बिलासपुर विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर अन्जिला गुप्ता ने रखी। वहीं, डा. विरेन्द्र कोन्डल ने पूरे विषय पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला।
संगोष्ठी के दूसरे दिन का पहला सत्र जम्मू कश्मीर के कानूनी एवं संवैधानिक विमर्श पर आधारित रहा। इस सत्र की अध्यक्षता मीराताई खड्गकर ने की, जबकि मुख्य वक्ता के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दिलीप कुमार दुबे ने विषय पर प्रकाश डाला। दिलीप दुबे ने कहा कि जम्मू-कश्मीर कोई समस्या नहीं है, न ही वहां कोई विवाद है। उन्होंने कहा कि कश्मीर के विलय को संयुक्त राष्ट्र से भी मान्यता मिल चुकी है, ऐसे में विवादित जम्मू-कश्मीर कहना गलत है। विवाद है तो गिलगित-बल्तिस्तान और मुजफ्फराबाद आदि पीओके के इलाकों का है, जो पाक के कब्जे में है।
संगोष्ठी का दूसरे दिन का दूसरा सत्र महाराजा हरिसिंह पर केन्द्रित रहा। इस सत्र में हिमाचल विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री ने हरिसिंह के जीवन के कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला। इस सत्र में डॉ. शैलेश जम्बवाल और कर्नल ब्रह्म सिंह ने विषय प्रस्तावना रखी।
संगोष्ठी का तीसरा सत्र जम्मू-कश्मीर में शैव दर्शन के प्रणेता आचार्य अभिनवगुप्त के योगदान पर केन्द्रित रहा। कार्यक्रम के दौरान आगामी वर्ष में अभिनवगुप्त की सहस्राब्दी मनाने का भी फैसला लिया गया। इसे 2016-17 में पूरे देश भर में आयोजित किया जाएगा। इस सत्र में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रजनीश शुक्ल ने आचार्य अभिनव गुप्त के व्यक्तित्व, कृतित्व और प्रभाव पर प्रकाश डाला। जबकि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली से आए प्रोफेसर रजनीश मिश्र ने अभिनवगुप्त के शैव दर्शन और साहित्य में प्रभाव पर जानकारी दी। इस दौरान जम्मू-कश्मीर से संबंधित तमाम विषयों पर देश भर से आए अनेकों विद्वानों ने शोध पत्र प्रस्तुत किए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सहसंपर्क प्रमुख अरूण कुमार ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के मसले पर कोई भी विमर्श आमतौर पर हिंदू-मुसलमान, विलय की शर्त और आजादी के विवादित और प्रायोजित सवालों में खो जाता है। इस बहस को मुद्दों और संवैधानिक दस्तावेजों पर केंद्रित करने की आवश्यकता है। संगोष्ठी के समापन सत्र में बतौर मुख्य वक्ता अरुण कुमार ने कहा कि हम अक्सर तत्कालीन दौर के नेताओं के भाषणों, बहसों और अन्य गैर कानूनी विषयों को इस बहस से जोड़ देते हैं। इससे कोई हल निकलने वाला नहीं है। अरुण कुमार ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के मसले पर बहस कानूनी और संवैधानिक दस्तावेजों के आधार पर होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर की विवादित स्थिति के लिए तत्कालीन दौर के किसी नेता को जिम्मेदार ठहराने की बजाय हमें समझना चाहिए कि यह सामूहिक राष्ट्रीय विफलता का नतीजा है।
1954 में हुए दिल्ली समझौते को संविधान की हत्या करार देने वाला बताते हुए उन्होंने कहा कि यह समझौता सिर्फ दो लोगों के बीच हुआ था। यह संविधान के दायरे में नहीं था, बिना संसद की मंजूरी के आखिर कैसे कोई समझौता किया जा सकता है। अरुण कुमार ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस असंवैधानिक समझौते को अदालत ने भी मंजूरी दे दी और मीडिया ने भी कोई सवाल खड़े नहीं किए। अरुण कुमार ने कहा कि हमें इस मसले पर बात करते हुए जवाहर लाल नेहरू, महाराजा हरिसिहं, शेख अब्दुल्ला और लॉर्ड माउंटबेटन जैसी हस्तियों तक केंद्रित नहीं रहना चाहिए। अरुण कुमार से पहले विश्वविद्यालय के कुलपति डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री ने कहा कि भारत ने जम्मू-कश्मीर के विलय में कई शर्तें थोप कर देरी कर दी, जिसकी वजह से सूबे का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया।
इस संगोष्ठी में पूरे देश से लगभग तीन सौ से अधिक शिक्षक, अधिवक्ता, शोध छात्र और मीडिया से जुड़े लोग उपस्थित रहे। इसके अलावा संगोष्ठी में केंद्रीय विश्वविद्यालय, जम्मू के कुलपति प्रोफेसर अशोक आइमा, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय की कुलपति अंजलि गुप्ता, वाराणसी से डॉ. रचना शर्मा सहित कई शिक्षाविदों ने भी शिरकत की।